गुरु परम्परा
संत सद्गुरु स्वामी श्री अद्वैतानन्द जी महाराज
श्री स्वामी अद्वैतानंद जी महाराज , अवतार (जन्म)
श्री स्वामी अद्वैतानंद जी महाराज, परमहंस (दादा गुरु देव जी) का जन्म रामनवमी के दिन संवत 1903, सन् 1846 में एक ब्राह्मण पाठक परिवार में हुआ था| उनके जन्म के समय ही लोगों को लगा की एक दिव्य शक्ति का धरती पर आगमन हुआ है| उनका जन्म राम नवमी के अवसर पर होने के कारण उनका नाम “रामयाद पूरी” रखा गया| उनके पिताजी श्री तुलसी दास जी पाठक एक बहुत ही नेक उच्च विचार वाले व्यक्ति थे और पंडित पुरोहिताई का कार्य करते थे| आस पास के क्षेत्रों में उनका काफ़ी प्रभाव था और बहुत से लोग उनके अनुयायी थे| दादा गुरु देव जी के जन्म से पहले वे दो संताने खो चुके थे इसलिए उन्होने जन्म पर बहुत अधिक खुशी ना मनाई और कहा कि वो उनके बड़े होने पर ही कोई प्रोग्राम करेंगे|
बचपन
श्री स्वामी अद्वैतानंद जी महाराज, परमहंस (दादा गुरु देव जी) का जन्म रामनवमी के दिन संवत 1903 , सन् 1846 में एक ब्राह्मण पाठक परिवार में हुआ था| उनके जन्म के समय ही लोगों को लगा की एक दिव्य शक्ति का धरती पर आगमन हुआ है| उनका जन्म राम नवमी के अवसर पर होने के कारण उनका नाम “रामयाद पूरी” रखा गया| उनके पिताजी श्री तुलसी दास जी पाठक एक बहुत ही नेक उच्च विचार वाले व्यक्ति थे और पंडित पुरोहिताई का कार्य करते थे| आस पास के क्षेत्रों में उनका काफ़ी प्रभाव था और बहुत से लोग उनके अनुयायी थे| दादा गुरु देव जी के जन्म से पहले वे दो संताने खो चुके थे इसलिए उन्होने जन्म पर बहुत अधिक खुशी ना मनाई और कहा कि वो उनके बड़े होने पर ही कोई प्रोग्राम करेंगे|
दादा गुरुदेव जी ने 8 साल की आयु में सत्संग कार्य आरंभ कर दिया था| 9 साल की आयु में तो वे श्वास क्रिया किया करते थे और उनपर महारत भी हासिल कर ली थी| वे निरंतर अभ्यास भी किया करते थे| श्वास क्रिया के ज़रिए वे अपने शरीर को अक्सर हवा मे काफ़ी उपर उठा लिया करते, जैसे की शरीर हवा में उड़ने लगता हो| और कई बार वे छत की उँचाई से भी उपर करीब 18 फुट तक अपने शरीर को उठा लिया करते थे| ये सब देखकर लोगों को चिंता होने लगी और उन्होने उन्हे ऐसा ना करने को कहा क्योंकि इससे शरीर को चोट लगने का ख़तरा था| ये सब देख कर सब को ये मालूम हो गया था की वे आलोकिक शक्तियों के मलिक हैं जिसकी वजह से ये चमत्कार हो रहे हैं|
जब वो करीब 14 साल के थे, तो लाला श्री नरहरी प्रसाद का भी देहांत हो गया था| पर इन सब बातों का दादा गुरु देव जी पर कोई असर ना पड़ा और उन्होने अपने भजन अभ्यास और सत्संग का कार्य जारी रखा| एक दिन श्री परमहंस केदारनाथ काशिवाले उनके घर पर आए| उनसे मिलने पर दादा गुरु देव जी ने साधु बनने की इच्छा प्रकट की और ये भी कहा कि वो ग्रहस्थी में नहीं जाना चाहते| स्वामी प्रामहंस जी ने उन्हे ऐसा ना करने के लिए और ग्रहस्थ में प्रवेश करने के लिए कहा| पर दादा गुरुदेव जी नहीं माने और अपनी बात पर डटे रहे| उनका निश्चय देखकर श्री परमहंस जी ने उन्हे सलाह दी की उन्हे अभी अपनी पालनहार माता का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि पिता के बाद देख भाल की ज़िम्मेदारी उन्ही की है| जब आप इन सब ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाएँ तो साधु बनकर वैराग्य में जा सकते हैं| इतना कह कर स्वामी परमहंस जी वहाँ से चले गये|
सन्यासभेष
अपनी पालनहार माता की मृत्यु के पश्चात 1863 में दादा गुरु देव जी विधिवत रूप से साधु बने| वे अक्सर एकांत में अपने अभ्यास में जुटे रहते थे| उन्होने बिहार के घने और ख़तरनाक जंगलो जैसे कि बक्सर में अकेले भ्रमण किया| वे सभी वस्तुओं का त्याग कर घने जंगलो में रहने के लिए चले गये|
जंगलो में तपस्या
जंगलो में जाकर उन्होने अपने वस्त्रों का भी त्याग कर दिया और दिगंबर रूप में रहने लगे| वो घने जंगलो में भयानक जानवरों जैसे शेर, सिंघ, साँपों इत्यादि के साथ अकेले नग्न रूप में करीब 16 वर्ष , 1879 तक रहे थे| इस दौरान उन्होने अभ्यास अवस्था की बहुत सी क्रियायों में महारत हासिल की जैसे कि शब्द योग, सहज योग और सूरत योग| वहाँ का वातावरण इतना भयानक था की आज हम उसमे एक दिन बिताने की कल्पना भी नहीं कर सकते| वे 6 वर्ष तक राजा हरीशचंद्र के नगर अकबरपुर में रहे| उनके गुरुजी ने उन्हे स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि साधु का एक जगह पर रहना ठीक नही| साधु चलता ही अच्छा है और उन्हे द्वारका और कथियावाड़ जाने का हुक्म दिया|
अपने गुरुदेव का आदेश पाकर वे तुरंत अयोध्या की तरफ़ चल पड़े| 2-3 और साधु भी उनके साथ हो लिए| रास्ते में और भी साधु उनके साथ जुड़ते गये और सबने मिलकर उन्हे अपना स्वामी मान लिया| वे जहाँ भी कहीं विश्राम के लिए रुकते तो बड़े प्रेम से उनके हाथ धुलाते, खाना परोसते और बिस्तर आदि बिछाते थे| ये सब दादा गुरु देव जी को अच्छा नहीं लगता था और वे अकेले ही रहना पसंद करते थे| इसलिए उन्होने धीरे धीरे सभी साधुओं को वापस भेज दिया और अकेले कानपुर होते हुए मथुरा पहुँचे|
मथुरा पहुँच कर उनकी मुलाकात एक महान संत से हुई| वे उन्हे बड़ी गर्मजोशी से मिले| उन संत जी ने कहा “ परमहंस रामयाद आओ मिलो” और उनसे हाथ भी मिलाया| दादा गुरु देव जी को उनसे मिलकर एक विशेष अनुभव हुया जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता|
मथुरा में लोग उनके पास इकट्ठा हो जाते और उन्हे फल, मिठाई आदि भी भेंट किया करते थे| पर उन्हे ये सब बिल्कुल पसंद नहीं था और उन्हें एकांत में रहना ही पसंद था| वे श्री कृष्ण जी की ध्यान में मगन गोकुल, मथुरा, वृंदावन आदि जगहों की सैर करते रहे| उनके द्वारा देखे गये दृश्यों का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता|
श्री स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज (श्री गुरु महाराज जी) से पहली मुलाकात
1904 में भक्त दीवान भगवान दास जी के अनुरोध पर दादा गुरु देव जी टेरी नगर में पधारे| वहाँ पर सत्संग प्रवाह का कार्य चल रहा था| तभी स्वामी स्वरूपानंद जी, जो की अपनी युवा अवस्था में थे, वहाँ पधारे| दादा गुरु देव जी ने तुरंत फरमाया, “ रास्ता छोड़ दो परमहंस जी आ रहे हैं”| सभी हैरान होकर देखने लगे की कोई संत महापुरुष तो दिख नहीं रहा, फिर ये किसे परमहस कह रहे हैं| इस बीच श्री गुरु महाराज जी ने दादा गुरु देव जी के चरणों में अपना शीश झुकाया| तो दादा गुरु देव जी ने सब से कहा की “यही परमहंस जी हैं| हमने इन्हे पहचान लिया है| और कहा की: अच्छा किया कि तुम खुद आ गये हो वरना हमे तुम्हे लेने जाना पड़ता| हम यहाँ तुम्हारे लिए ही आए हैं और फिर उन्हे अपने शिष्यों में शामिल कर लिया|
महानिर्वाण
7 जनवरी 1915 को दादा गुरु देव जी टेरी जिला कोहाट में गये| उस समय खूब सर्दी पड़ रही थी, पर उन्होने अपना शरीर वृद्ध होने के बावजूद भी केवल एक मलमल का चोला पहना हुया था| अत्याधिक सर्दी की वजह से 11 फरवरी 1915 को शाम के करीब 7 बजे उन्हें शरीर के दाएँ हिस्से में पक्शाघात हुया| विभिन्न जगहों जैसे बन्नू, कोहाट से डॉक्टर, हक़ीम उनके इलाज के लिए बुलवाए गये पर उनकी सेहत में कोई विशेष सुधार ना हुआ| इस बीच उन्होने अपना सत्संग का कार्य जारी रखा और संगत को इतला देने से मना कर दिया| अक्टूबर 1915 में जब सर्दी दुबारा पड़ने लगी तो शिष्यों ने उन्हें एक रिजर्व गाड़ी के द्वारा आगरा ले जाने का निश्चय किया| आगरा पहुँच कर वे नंगला पड़ी में कृष्णा द्वारा में रुके| वहाँ बहुत से गनमानेय व्यक्तियों ने आकर उनके दर्शन किए| जयपुर से लाला सूरज बक्ष , लाला हज़ारी लाल भी आए और उनसे जयपुर चलने की प्राथना की और ये कहा की जयपुर की आबोहवा उन्हे हमेशा से ही माफ़िक़ आई है|
दादा गुरुदेव जी 8 जून 1916 को जयपुर में पधारे और बद्री नारायण की लाल डोंगरी में निवास किया| डॉक्टर दल जुंग सिंघ , रेसिडेन्सी सर्जन जयपुर ने उनके चेक अप इलाज इत्यादि की ड्यूटी संभाली| और वो नित्य उनका चेक उप करने आया करते थे और अपनी ड्यूटी को बड़े ही प्रेम और सेवा भाव से निभाते थे| उन्होने कभी कोई फीस भी नहीं ली थी| वो निरंतर कोशिश करते रहे पर दादा गुरु देव जी की तबीयत में कोई खास सुधार ना हुया| दादा गुरु देव जी ने एक दिन कहा की डा. साहिब बड़े प्रेम से सेवा कर रहे हैं पर उन्हे रोज़ आने से कष्ट होता होगा, साथ ही खर्चा भी आवशय होता है| रोज़ रोज़ मोटर कार से आना होता है इसलिए अब हमारी इच्छा है की वो रोज़ ना आकर कभी कभी आ जाया करें पर डॉक्टर साहिब ने फिर भी आना जारी रखा और सेवा का धर्म निभाते रहे| एक रोज़ दादा गुरुदेव जी सबके सामने ये फरमाया कि “ बुडापे में फालिज और जवानी में तपेदिक मृत्यु का संकेत होते हैं, इसलिए उनका इलाज अब बंद कर देना चाहिए”| पर उनका इलाज लगातार उसी तरह चलता रहा|
एक दिन टेरी से उनके कुछ शिष्ये आए और दादा गुरु देव जी को टेरी चलने की प्राथना की| इसपर जयपुर के लोगों ने वहाँ के सर्दी के मौसम और दादा गुरु देव जी के स्वास्थ की चिंता जाहिर की और कहाँ की उनका शरीर वहाँ का मौसम कैसे बर्दाश्त करेगा| टेरी वालों ने ज़िद की और कहा की अब मौसम बदल गया है और सभी प्रेमी मिलकर उनकी दिन रात सेवा करेंगे| इस तरह दादा गुरु देव जी उनके साथ टेरी जिला कोहाट को चले गये|
टेरी पहुँच कर उनके शिष्यों ने उनकी दिन रात जी जान से सेवा की, पर उनकी हालत में कोई सुधार ना हुआ| पर उन्होने सत्संग प्रवाह का कार्य जारी रखा और शिष्यों को लगातार उत्साहित करते रहे| 15 जून 1919 से उन्होने भोजन दाल, रोटी चावल इत्यादि का त्याग कर दिया और केवल 3 चम्मच दूध लेना शुरू किया| उन दिनो हैज़ा फैला हुया था और सरहद पार भी जंग छिड़ी हुई थी| चारों तरफ़ अफ़रा तफ़री का माहोल था| प्रेमियों ने उनसे प्राथना की कि ये वातावरर्ण शांत हो और उनकी कृपा बनी रहे| उन्होने प्रेमियों को शांत रहने का हुकुम दिया और फरमाया की जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा| और वैसा ही हुया| फिर उन्हे अचानक बुखार चॅड आया और उन्होने दूध लेना भी छोड़ दिया और केवल 3 चम्मच पानी पर चले गये| 8 जुलाई 1919 को उनकी सेहत और बिगड़ गयी और शरीर में भी केवल मामूली हरकत थी| 9 जुलाई 1919 वीरवार को सुबह के करीब 6 बजे वे अपना शरीर त्याग कर निज धाम को सिधार गये| तुरंत उनको समाधि देने की तैयारी शुरू की गई और उनको पूर्ण वेदिक और साध्वीक रीति के अनुसार समाधि दे दी गई| उनकी इच्छा अनुसार श्री स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज को उनका उतराधिकारी नियुक्त किया गया| इसका जिकर उन्होने अपनी वसीयत में किया था|
३ मई 1919 को, दादा गुरु देव जी ने ये चिट्ठी एक वसीयत के रूप में लिखी थी:
"अज़ीज़ ख़ान चाँद जी,
आप सदा खुश और सुखी रहो. भविषय की शुभ कामनायों के साथ आगे ये समाचार है की सभी नये और पुराने सत्संगियों को ये सूचना दी जाए की “श्री महाराज जी के अनुसार दो तरह के उतराधिकारी होते हैं, जिस्मानी और रूहानी ये सबको मालूम है की बाबा विशुध आनंद जी पिछले 1 वर्ष से जिस्मानी उतराधिकारी हो चुके हैं. रूहानी उतराधिकारी श्री स्वामी स्वरूपानंद जी हैं, जो कोई उनसे सत्संग सुनेगा , इनको मानेगा और इनसे उपदेश लेगा वो बहुत ही लाभ प्राप्त करेगा| ये हमारा आशीर्वाद है| स्वामी योग आनंद जी और भगत आमिर चाँद जी भी सबको यह बताएँ की हमारे रूहानी उतराधिकारी श्री स्वामी स्वरूपानंद जी हैं| और हमारा यह आशीर्वाद है की स्वामी स्वरूपानंद जी के दस हज़ार से ज़्यादा शिष्य होंगे. जो कोई इनका सत्संग सुनेगा और इनसे उपदेश लेगा उसे हमारा आशीर्वाद प्राप्त होगा|"
संत सद्गुरु स्वामी श्री स्वरूपानन्द जी महाराज
स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज अवतार (जन्म)
1884 की बसंत पंचमी के शुभ दिन, सीमा प्रांत टेरी नगर, तहसील बांदा जिला कोहाट के वासुदेव परिवार में 1 फ़रवरी 1884 को एक बालक का जन्म हुआ | आम तोर पर पैदा होते समय बच्चा रोता है, परंतु यह बच्चा रोने के बजे हंस रहा था| उस समय उपस्थित परिवार जनो ने भी एक दिव्य रोशनी महसूस की| पिता प्रभु दयाल जी और माता राधे रानी को भी इस विशिष्ट बालक के जन्म पर एक दिव्य अनुभव हुआ| इस बालक का नाम ‘बेली राम’ रखा गया| यही बालक आगे चल कर एक महान संत महापुरुष, पूरण सदगुरु के रूप में ‘श्री स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज के नाम से विख्यात हुए| आज विश्व भर में उनके लाखो करोरो अनुयायी उन्हे श्री गुरु महाराज जी कहकर पुकारते और याद करते हैं|
बचपन
जब उनकी आयु केवल 3 मास की थी तो उनकी माता देवी दर्शन के लिए मंदिर जाते हुए उन्हें साथ ले गयी| देवी मंदिर पर दर्शन के लिए जाते समय माता इस नन्हे बालक को मंदिर के बाहर एक चबूतरे पर लिटा कर अंदर चली गयी| माता जब दर्शन और पूजा अर्चना करके वापिस आई तो उसने बालक को वहाँ नहीं पाया| माता चिंतित हो गयी और इधर उधर बालक को तलाशने लगी| यह खबर जब परिवार जनो तक पहुँची तो उन्होने भी सब तरफ तलाशना शुरू किया| सभी चिंतित और हैरान थे की 3 मास का एक नन्हा बालक भला अकेला कैसे कहीं जा सकता है| माता पिता ने खाना पीना सब छोड़ दिया और उनका रो-रो कर बुरा हाल था| 3 दिन बाद मंदिर के पुजारी ने आकर सूचना दी की मंदिर के बाहर चबूतरे पर एक नन्हा बालक लेटा हुआ है| सभी परिवार वाले जब भागकर वहाँ पहुँचे तो देखा की वही बालक बिल्कुल स्वस्थ रूप में वहाँ लेटा हुआ हंस रहा था| माता ने बालक को उठाकर सीने से लगा लिया| सभी परिवार वाले हैरान थे की बालक 3 दिन तक अकेला कहाँ रहा है| उस दिन से सबको और भी विश्वास हो गया की यह कोई दिव्य विभूति है और इस बालक की ख्याति आस पास के नगरों में भी फैलने लगी|
इस चमत्कारिक घटना के कुछ दिन बाद एक फ़क़ीर उनके घर आया| उस समय माता श्रीमती राधे रानी ने उस फ़क़ीर को जब भोजन और अन्य पदार्थ देने चाहे तो फ़क़ीर ने लेने से इनकार कर दिया| फ़क़ीर ने केवल उस दिव्य बालक के दर्शन करने की इच्छा ज़ाहिर की| यह सुनकर माता घबरा गयी और बालक को उस फ़क़ीर को दिखाने से माना कर दिया| उसी समय नगर के पंडित हेमराज जी वहाँ आ गये| उन्होने जब सारा किस्सा सुना तो माता से बालक को फ़क़ीर को दिखाकर आशिरवाद लेने को कहा| यह सुनकर माता कुछ संतुष्ट हुई और उस दिव्य बालक को बाहर ले आई| फ़क़ीर ने उस बालक को देखते हुए गोदी में उठा लिया और उसे लगातार निहारता रहा| फ़क़ीर ने फिर उस बालक से कहा क्या तुमने हमें पहचान लिया है? हम यहाँ तुमहारे लिए ही आएँ हैं| यह सुनकर वो बालक हंस पड़ा और मुस्कुराता रहा| इसके बाद पंडितजी ने उस बालक को अंदर पलंग पर लिटा दिया और जब बाहर आए तो फ़क़ीर को वहाँ नही पाया| सबने फ़क़ीर को इधर उधर ढूंढा पर वो कहीं नज़र नहीं आया| यहाँ तक की उसे नगर भर में ढुंडा गया पर सफलता नही मिली| फ़क़ीर मानो एक दम कहीं अदृश्य हो गया था| यह सब देखकर सबने यही समझा की एक दिव्य आत्मा दूसरी दिव्य आत्मा से मिलने आई थी| इसके पश्चात इस दिव्य विभूति की शोहरत दूर दूर तक फैलने लगी|
जैसे जैसे ये बालक बड़ा होता गया, परिवार ने उन्हे व्यापार में दिलचस्पी लेने को कहा और दुकान पर बैठने को कहा| परंतु उन्होने कभी इस सब मे रूचि नही ली| वो दुकान पर ग्राहकों को बिना पैसे लिए समान दे दिया करते थे| ये सब देखकर परिवार ने फिर कभी ज़िद नहीं की और उन्हे अपनी भक्ति प्रवाह आदि कार्य करने की इज़ाजत् दे दी| वो अक्सर पास के पहाड़ो में अकेले बैठ कर घंटों अभ्यास किया करते थे.
स्वामी परमहंस दयाल जी महाराज (दादा गुरु देव जी अर्थात स्वामी अद्वैतानंद जी महाराज) के प्रथम दर्शन
1904 में दादा गुरु देव, स्वामी परमहंस दयाल जी महाराज जी प्रेमियों सहित टेरी नगर में पधारे| वो हमेशा सत्संग में व्यस्त रहते थे और इस क्षेत्र में काफ़ी प्रसिध थे| श्री गुरु महाराज जी को प्रेमियों के द्वारा उनके आने का पता लगा| उन्हे भी अंदर से महसूस हुआ कि एक पूरण गुरु आ पहुँचे हैं, तो वे उनके दर्शनो के लिए गये| श्री गुरु महाराज जी ने जैसे ही उनके चरनो पर शीश झुकाया तो दादा गुरु देव जी ने कहा “ तुम आ गये हो| अच्छा हुया तुम खुद ही आ गये हो वरना हमे जा कर तुम्हे लाना पड़ता| हमारा टेरी में आने का उद्देशय पूरण हो गया है| वहाँ उपस्थित लोगों को लग रहा था कि जैसे दो महान आत्मायें, दो महान संत एक दूसरे से मिल रहे थे| उस दिन से श्री दादा गुरु देव जी ने उन्हे अपने शिष्यों में शामिल कर लिया|
सन्यास भेष
स्वामी परमहंस दयाल जी महाराज ने उन्हें 1907 में आगरा में विधिवत रूप से सन्यास भेष दिया और उनके केश काट कर चोटी रखी गयी और भगवा चोला पहनाया गया| इस दिन से आपका शुभ नाम श्री स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज रखा गया| दादा गुरु देव जी ने उन्हे बहुत से आशीर्वाद दिए और ये वचन फरमाये कि इनके हज़ारों शिष्य होंगे और जो भी कोई इनसे प्रेम करेगा और उपदेश लेगा वो बहुत ही लाभ प्राप्त करेगा |
आगरा में तपस्या
एक बार दादा गुरु देव जी महाराज ने श्री गुरु महाराज जी को आगरा में जाकर तपस्या करने का आदेश दिया| श्री गुरु महाराज जी को अपने गुरु देव से दूर जाने का दुख तो ज़रूर हुया पर उन्होने गुरु आगया का पालन हंसते हंसते किया| वे तुरंत आगरा गये और नगर से बाहर एक नीम के पेड़ के नीचे जगह का चुनाव किया| उन्होने ज़मीन से करीब 4-5 फुट नीचे एक गुफा खोद कर उसमे रहना शुरू किया| उन्होने केवल एक लंबा चोला पहना हुया था, पैरों में जूते तक नहीं थे| और पास में कोई अन्य वस्तु भी न्हीं थी| वे गुफा में लगातार त्पस्या किया करते थे और कभी कभी ही बाहर आया करते थे| शुरू शुरू में वे मधुकरी (भिक्षा) किया करते थे और केवल दो रोटी ही बिना किसी सब्ज़ी इत्यादि के लिया करते थे| बाद में उन्होने ये मधुकरी भी छोड़ दी| वे नीम के पत्तों को उबाल कर पानी पिया करते थे| कभी कभी गुफा के ऊपर धूनी रमा कर खिचड़ी बना लिया करते थे| लोगों को इस बात की हैरानी थी की वे कैसे बिना भोजन, पानी के अपना गुज़ारा किया करते हैं| लोग जब भी उन्हें कुछ देने की कोशिश करते थे वे इनकार कर देते थे| धीरे धीरे कई साल बीत गये और उनके बाल भी खूब लंबे हो गये थे, चोला भी फट चुका था परंतु उन्होने कभी इस सबकी परवाह नही की और निरंतर अपनी त्पस्या में जुटे रहे|
नगर के लोगों और बच्चों ने उन्हे हरिहर बाबा पुकारना शुरू कर दिया था| वे हर समय केवल अपनी तपस्या में लीन रहते थे| धीरे धीरे उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा, उनके होंठ सूख गये, गाल और आँखें पिचक अंदर को धँस गये थे| उन्ही दिनो दादा गुरु देव जी के कुच्छ शिष्य वहाँ आए और श्री गुरु महाराज जी को इस हालत में देख कर बहुत चिंतित हुए| उन्होने इस बात की सूचना दादा गुरु देव जी को कोहाट में भिजवाई कि श्री गुरु महाराज जी घोर तपस्या कर रहे हैं, उन्होने अपनी सुरती को भी उपर चड़ाया हुआ है और शरीर भी बहुत कमज़ोर हो चुका है| ये सब सुनकर श्री दादा गुरु देव जी ने आदेश दिया कि फॉरन ही उन्हें टेरी में सावधानी पूर्वक लाया जाए| उनकी आगया का पालन किया गया और श्री गुरु महाराज जी के शरीर को रूई में सहज कर बड़ी सावधानी से टेरी ले जया गया| जब उन्हे श्री दादा गुरु देव जी के सामने लाया गया तो वे तब भी अपनी तपस्या में लीन थे और वृति ऊपर की और ही थी| शरीर के निचले हिस्से में वायु का प्रवाह भी नही हो रहा था| दादा गुर देव जी ने उनके कान में अपने श्रीमुख से फूँक मारी और उनके शरीर में वायु का प्रवाह शुरू हो गया| धीरे धीरे उनकी वृति वापिस लोटने लगी और उनके शरीर में हरकत शुरू हो गयी| उसके पश्चात खुद दादा गुरु देव जी ने उन्हे चमच से थोड़ा दूध पिलाया और कहा कि शरीर को इतना कष्ट देना ठीक नही| आपने बहुत तपस्या कर ली है, अब प्रेमियों का सत्संग के द्वारा कल्याण करो|
श्री नंगली साहिब में आना
एक बार श्री स्वामी गुरु चरननंद जी नंगली गांव में पधारे और ‘भक्त गेन्दा राम’ और उनके परिवार से मिले| भक्त गेन्दा राम जी एक उच विचार वाले और भक्ति भाव रखने वाले व्यक्ति थे| उन्हे प्रभु की भक्ति के अलावा संतों से भी लगाव रहता था| गेन्दा रामजी ने स्वामी गुरु चरननंद जी से सहज योग सीखने की इच्छा ज़ाहिर की| इस पर स्वामी जी ने कहा हम तो ये युक्ति तुम्हे नहीं सीखा सकते पर हमारे गुरु देव, श्री गुरु महाराज जी इन सब युक्तियों के महान घाता हैं| वो इस समय चकोड़ी आश्रम में वीराज़मान हैं| ये सुनकर गेन्दा राम जी तुरंत चकोड़ी जाने के लिए तैयार हो गये और उनके साथ चकोड़ी साहिब पहुँच गये| श्री चकोड़ी साहिब पहुँच उन्होने जैसे ही श्री गुरु महाराज जी के दर्शन किए, उन्हे यह महसूस हो गया की उन्हे पूरण गुरु मिल गये हैं| गेन्दा राम जी ने श्री गुरु महाराज जी से नंगली साहिब आने की प्राथना की, जो की स्वीकार हो गयी| थोड़े समय पश्चात श्री गुरु महाराज जी, संत मंडल सहित नंगली साहिब पधारे| उन्हे यह जगह बहुत पसंद आई और वे कुछ दिन तक नंगली में ही रहे| भक्त गेन्दा राम जी और गांव वालों ने उनकी सेवा का खूब लाभ उठाया| भक्त गेन्दा राम जी ने अपनी समस्त संपत्ति, ज़मीन, खेती इत्यादि अर्पण कर अपने आपको गुरु चरनो में समर्पित कर दिया| श्री गुरु महाराज जी ने उनकी प्राथना को स्वीकार किया और उनकी समस्त भूमि की रजिस्ट्री श्री गुरु दरबार के नाम करा दी गयी| इसके पश्चात इसे संतो की नंगली कहा जाने लगा और इसका नाम श्री नंगली साहिब हो गया|
महानिर्वाण
श्री गुरु महाराज जी मार्च 1936 में दिल्ली में पधारे और अपने शिष्यों को बहुत से आशिर्वाद दिए| उन्होने अपने लिए दाँतों का एक नया सेट बनवाने की इच्छा ज़ाहिर की| सेवादारों ने अर्ज़ की कि श्री महाराज जी के लिए पहले ही दाँतों के 2 सेट मोज़ूद हैं, फिर और क्या करना है| इस पर श्री गुरु महाराज जी ने आदेश दिया की यह सेट किसी खास मकसद के लिए ही बनवाया जा रहा है| फॉरन उनकी आज्ञा का पालन हुया और तुरंत जामा मस्जिद क्षेत्र में श्री गुरु महाराज जी को ले जाया गया और एक डेंटिस्ट को नये सेट का ऑर्डर दे दिया गया| इसके पश्चात श्री गुरु महाराज जी नंगली साहिब में लौट आए| वे 3, 4, 5 और 6 अप्रैल 1936 को किसी कार्यवश श्री नंगली साहिब से बाहर रहे और 7 अप्रैल को वापस लौट आए| वैसे तो श्री गुरु महाराज जी सीधे अपनी मोटर कार से श्री नंगली साहिब जाया करते थे, पर उस रोज़ वे कुछ देर सकौती टांडा में ठहरे| प्रेमी वहाँ दर्शनों के लिए जमा होने लगे| उन्होने आदेश देकर मेरठ से विशेष प्रसाद मँगवाया और सारी संगत में बाँटते हुए ये भी फरमाया कि आप लोग बहुत भाग्यशाली हो जिनको यह दर्शन प्राप्त हो रहा है| लोगों ने उनके वचनो को सुना पर समझ ना सके| इसके पश्चात श्री महाराज जी अपनी मोटर कार में श्री नंगली साहिब चले गये|
उसी दिन शाम को नंगली साहिब पहुँच कर उन्होने संगत को दर्शन दिए और बहुत सारा हलवा प्रसाद बनाने का आदेश दिया ताकि सारे गाओं में बाँटा जा सके| जब लोगों ने पूछा कि ये हलवा प्रसाद किस लिए बाँटा जर आहा है, तो उन्होने फरमाया कि परसों हम श्री नंगली साहिब से चले जाएँगे| किसी को ज़रा सा भी अहसास नहीं हुया की वो किस और इशारा कर रहे हैं|
उन्होने सेवादारों को मुख्य द्वार चौड़ा करने का आदेश दिया और कहा कि इसे जल्दी से चौड़ा करो क्योकि यहाँ बहुत संगत आया करेगी| कोई भी ये समझ ना सका की ये कार्य किसलिए करवाया जा रहा है| दरवाज़े के लिए ज़रूरी समान ईंटे, सीमेंट आदि मँगवाया गया| उन्होने हुकुम दिया की कुछ अच्छी ईंटे और सीमेंट की बोरियाँ अलग रखवा दी जाएँ और ये फरमाया कि ये हमारे विशेष काम में आएँगी| उन्होने मेरठ से 2 सफेद चादर, सेंट, अगरबत्ती इत्यादि लाने का भी हुकुम दिया| सेवादारों ने कहा की यह सब समान तो पहले ही स्टोर मैं बहुत पड़ा है, तो उन्होने ज़ोर देकर कहा ये सब समान हमारे प्रयोग के लिए है| 8 अप्रैल की रात को वो उपस्थित प्रेमियों और संतो के साथ सत्संग चर्चा करते रहे और फिर फरमाया कि हम कल चले जाएँगे| रात को उन्होने हल्का भोजन किया और फिर अपने विश्राम कक्ष में चले गये|
9 अप्रैल की सुबह वो भोर वेला में उठे और सब को ये फरमाया की वो आज प्रस्थान करेंगे| इसके बाद नित्य क्रिया, स्नान आदि से फारिग हुए| फिर सेवादारों को ये हुकुम दिया कि उन्हें आवाज़ ना दी जाए और सहज योग में बैठ गये| सभी संत मंडल और सेवादार बाहर उनके पुकारे जाने का इंतज़ार करते रहे, परंतु अंदर से कोई आवाज़ ना आई| जब इंतज़ार करते हुए काफ़ी समय बीत गया तो सेवदारों ने डरते डरते धीरे से दरवाज़ा खोला तो श्री गुरु महाराज को समाधि अवस्था में लीन पाया| उन्होने श्री गुरु महाराज जी को पुकारा परंतु उन्होने कोई उत्तर नहीं दिया, इसपर सेवादारों ने उनके चरण स्पर्श किए और हिलाकर देखा तो पाया की श्री गुरु महाराज जी अपने निज धाम को सिधार चुके हैं| यह सूचना नंगली में उपस्थित सभी प्रेमियों और संतों को दी गयी| सभी लोग ज़ोर ज़ोर से विलाप करने लगे| पूरा नंगली गांव भी जमा हो गया| उनके सभी आश्रमों, शिष्यों को इस बात की सूचना दी गयी| पूरे भारत वर्ष से संत जन और प्रेमी उनके दर्शनों को आने लगे|
संत सद्गुरु स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी महाराज
संत सद्गुरु स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी महाराज उत्तर प्रदेश के पोंडरी नामक स्थान से सम्बन्ध रखते हैं इन्होने स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज से दीक्षा प्राप्त कर अपना अधिकतम समय ध्यान भजन में व्यतीत किया तथा बहुत से लोगो को हंस दीक्षा, समाधि दीक्षा तथा परमहंस दीक्षा प्रदान की ।
संत सद्गुरु स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी महाराज बहुत ही प्रखर आध्यात्मिक वक्ता थे । ये मुंबई में एक कपड़ा मिल में कार्य करते थे । एक बार ये दिल्ली आए हुये थे तो इनके एक मित्र ने इनको बताया कि संत सद्गुरु स्वरूपाननद जी महाराज दिल्ली आए हुए हैं तथा सुबह सात बजे संगत को दर्शन तथा सत्संग देंगे । स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी ने उनका अनुरोध स्वीकार करते हुए कहा कि ठीक है मैं भी आपके साथ चलूँगा । स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी बताए गए स्थान पर सुबह सात बजे पहुँच गए। वहाँ लगभग एक हज़ार लोग एकट्ठे हुए थे लेकिन स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज किसी कारण वश शाम सात बजे तक वहाँ आए । तब वहाँ 25 लोगों की संगत ही रूकी थी बाकी सब चले गए थे । स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज ने बाहर आकार सभी से मुलाक़ात की । जैसे ही उनकी नज़र स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी महाराज पर पड़ी तो स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज ने उनसे पूछा कि आप क्या काम करते हैं । स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी ने कहा कि मैं मुंबई में कपड़ा मिल में नौकरी करता हूँ । स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज ने उनसे कहा कि आज से आप उस नौकरी को छोडकर मेरे नौकरी करो । उसी दिन से स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी ने स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज का संग ले लिया । इसके बाद स्वामी स्वरूपानन्द जी महाराज ने अपने गुरुदेव की बहुत सेवा की । स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी चार-पाँच घंटे तक बहुत ही प्रभावी, सरल तथा गूढ़ सत्संग किया करते थे । इनको “पोंडरी वाले संत” के नाम से भी जाना जाता था । इन्ही महान संत से वर्तमान संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज ने हंस दीक्षा प्राप्त की थी ।
संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज
संत सद्गुरु स्वामी श्री राजनंद जी महाराज ने संत सद्गुरु स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी महाराज से हंस दीक्षा, समाधि दीक्षा और परमहंस दीक्षा का ज्ञान प्राप्त किया । जब संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज सत्संग फरमाया करते थे तो अच्छे से अच्छे आध्यात्मिक विद्वान भी इनके सामने अवाक हो जाते थे इनको विभिन्न धर्मग्रंथों का गूढ ज्ञान था ।
संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज ने भी हंस दीक्षा का ज्ञान संत सद्गुरु स्वामी श्री अनिरुद्धदेव जी महाराज से प्राप्त किया । इनको परमहंस दीक्षा एक गुप्त संत के द्वारा मिली, हुआ यूं की एक बार संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज के आश्रम में भंडारा चल रहा था । सर्दी का मौसम था । लगातार चार-पाँच दिनों तक सत्संग चलता रहा । इसी बीच ऐसा पाया गया कि एक व्यक्त मैले कुचले कपड़ों में रोज सत्संग सुनता तथा सत्संग समाप्त होने पर वही बाहर पानदाल में सौ जाता । एक दिन संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज की नज़र इस व्यक्ति पर पड़ी । तो उन्होने अधिक सर्दी होने की वजह से अपनी ही कुटिया में सुला लिया । कुटिया का साइज़ लगभग 15 फुट चौड़ा तथा 30 फुट लंबा था । संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज तथा इस व्यक्ति की चारपाई बराबर बराबर में पड़ी हुई थी । कुटिया में रोशनी के लिए दीपक जल रहा था । संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज सोने से पूर्व चारपाई लेट गए तथा करवट लेने लगे इसी बीच उस व्यक्ति ने तुरंत बहुत ज़ोर से चिल्ला कर कहा कि “राजानन्द चुपचाप लेट जाओ”। संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज बहुत ही प्रभावशाली संत थे किसी भी इंसान की उनसे इस प्रकार बात करने की हिम्मत नही होती थी । उन्होने सोचा जरूर कोई बात है वे शांत होकर लेट गए । कुछ समय पश्चात संत सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज पुन: चारपाई से यह सोचकर उठाने लगे कि दीपक को बुझा दूँ वैसे ही उस व्यक्ति ने ज़ोर से चिल्ला कर कहा कि “राजानन्द तुझे सुना नहीं, चुपचाप लेट जा” तब राजानंद जी महाराज ने विनम्रता से आग्रह किया कि मैं सोने से पहले दीपक बुझाना चाहता हूँ । उस व्यक्ति ने जवाब दिया “मैं बुझा दूंगा तू लेट जा” और इस अंजान व्यक्ति ने अपनी चारपाई से बैठे बैठे ही अपना हाथ इतना लंबा किया कि लगभग 20 फीट की दूरी पर रखे दीपक को बुझा दिया । इस कौतुक को देखकर सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज समझ गए कि यह व्यक्ति कोई महान संत है । तब स्वामी राजानन्द जी ने विनम्रता से उनसे बहुत सारे आध्यात्मिक प्रश्न किए । ये व्यक्ति वास्तव में कोई गुप्त महान संत थे तब इन संत जी ने बड़ी विनम्रता से बताया कि “ राजानन्द आज के समय में तुम एक योग्य इंसान हो इसीलिए मैं पिछले चार दिनों से तुम्हारे पीछे था, मैं तुम्हें सार शब्द अर्थात परमहंस की दीक्षा देना चाहता हूँ” । सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज ने संत जी का विनम्र भाव से अभिनंदन कर परमहंस दीक्षा के लिए आग्रह किया । गुप्त संत ने सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज को परमहंस दीक्षा दी और कहा कि अब हम चलते है । सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज ने उनसे वहीं रुकने के लिए प्रार्थना की लेकिन उन्होने इंकार कर दिया । तब सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज ने पूछा कि गुरुदेव अब मुलाक़ात कब होगी तो गुप्त संत ने कहा कि हर बारह साल बाद । इसके बाद गुप्त संत अपने वायदे के अनुसार हर बारह वर्ष बाद तीन बार सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज से मिलने आए ।
सद्गुरु स्वामी श्री राजानंद जी महाराज ने परमहंस दीक्षा प्राप्त करने के बाद बहुत ध्यान भजन किया तथा बहुत से साधकों को इस मार्ग पर अग्रसर किया । इन्ही महान संत से वर्तमान संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज ने परमहंस दीक्षा प्राप्त की थी ।
संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज ( वर्तमान गुरुदेव जी )
वर्तमान में शिष्यों को हंस दीक्षा, समाधि दीक्षा तथा परमहंस दीक्षा देने का कार्य संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज कर रहे है । संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज का बचपन से ही अध्यात्म के प्रति बहुत रुझान था । जब ये छ - सात की आयु के ही थे ये पूरी पूरी रात ध्यान में बैठे रहते थे । घर के कार्यों से जैसे ही फुर्सत मिलती तो ये ध्यान भजन में अपना समय व्यतीत करते थे । बड़े होने पर अपने गाँव के पास नहर के किनारे खड़े पेड़ों के बीच में सूखे पत्ते बिछा कर ये कई कई दिनों तक ध्यान भजन किया करते थे । इनको भूख प्यास भी ज्यादा नहीं सताती थी । इनके भाई इनको पेड़ों के बीच से ढूंढ कर खाना आदि खिलाया करते थे । गुरुदेव संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज का जन्म मेनपुरी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में हुआ । अपनी 35 साल की उम्र में संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज सन्यासी हो गए तथा विभिन्न स्थानो पर इन्होने ध्यान भक्ति की । सन 2011 में संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज उत्तर प्रदेश के जिले फ़िरोज़ाबाद के गाँव नंगला भादों के पास “चिंताहरण मुक्त मंडल एवं परमानन्द शोध संस्थान” में रहने लगे ।
अभी संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज आश्रम में आगन्तुको को अध्यात्म से संबन्धित रहस्यों के बारे में बताते रहते है । जिज्ञासु यदि घंटो-घंटो भी गुरुदेव से आध्यात्मिक चर्चा करते रहते हैं तो भी ये बड़े प्रेम से सभी प्रश्नो का उत्तर देते जाते हैं । आश्रम में आने वाले साधकों के लिए उनको ध्यान अभ्यास करना इनका सर्वोपरि कार्य है । समय मिलते ही स्वयं संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज ध्यान अवस्था में लीन हो जाते हैं । इनका जीवन सादगी तथा प्रेम से भरपूर है । जो भी इनसे मिलता है उसको लगता है कि शायद संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज दुनिया में सबसे अधिक उसी से प्रेम करते हैं । वास्तव में संत सद्गुरु स्वामी श्री शिवानंद जी महाराज स्वयं साक्षात प्रेम का ही रूप हैं । आश्रम का संचालन इन्ही की देखभाल में चल रहा है ।
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