Dhyan Samadhi / ध्यान समाधि

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आत्माचक्र तथा कुण्डलनीध्यानसमाधिदीक्षाएंदेहधारी गुरु की महत्तागुरु परम्पराभक्ति के प्रकारगुरु कृपाआध्यात्मिक उन्नति के सुझाव
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Dhyan Samadhi / ध्यान समाधि

दीक्षाएं


जब कोई जिज्ञासु हमारे किसी साधक या वैब साइट के माध्यम से इस संस्था के संपर्क में आता है तो साधकों अथवा वैब साइट से उसको परमपिता परमेश्वर की प्राप्ति के मार्ग का एक सामान्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है । इसके बाद यदि वह आश्रम में जाकर संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज से किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक प्रश्न करना चाहता है तो गुरुदेव जिज्ञासु के हर प्रश्न का उत्तर बड़े ही विनम्र भाव से देकर उसको संतुष्ट करते हैं । यदि जिज्ञासु पूर्ण रूप से संतुष्ट हो जाता है और वह दीक्षा का आग्रह करता है तो गुरुदेव दीक्षा से एक दिन पूर्व जिज्ञासु को आंतरिक गूढ रहस्यों से अवगत कराते हैं और अगले दिन दीक्षा प्रदान करते हैं । जो जिज्ञासु विभिन्न मत मतांतरों से से दीक्षा प्राप्त कर ध्यान अभ्यास कर रहे होते हैं संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज उनको हंस दीक्षा ( ब्रह्म दीक्षा ) तथा समाधि दीक्षा दोनों का ज्ञान प्रदान कर देते हैं । और इस ज्ञान के बारे में संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज दीक्षा देते समय यह भी समझते हैं कि कोई पूर्ण गुरु ही इस ज्ञान को प्रदान करने का अधिकारी होता है और वह गुरु भी ऐसा हो कि

दीक्षा के विभिन्न प्रकार

1) हंस दीक्षा ( ब्रह्म दीक्षा )
संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज स्नान आदि से निवृत्त होकर जिज्ञासुओं को सुबह 08:00 बजे से 12:00 बजे के बीच दीक्षा प्रदान करते हैं । हंस दीक्षा में संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज शिष्य को ब्रह्म ज्ञान कराते हैं तथा साधक को एक विशेष प्रकार का प्रभु सिमरण का ज्ञान प्रदान कराते हैं । जिससे साधक सदैव परमपिता परमेश्वर का स्मरण बिना किसी मंत्र के जाप के करता रहता है ।
कुण्डलनी
इसके अतिरिक्त इस दीक्षा में शरीर के विभिन्न चक्रों को जाग्रत कर दिया जाता है । साधक इस दीक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर ध्यान अभ्यास कर अपने आज्ञा चक्र पर विभिन्न लोक लोकांतर देखने लगता है अर्थात तीसरा दिव्य नेत्र खुल जाता है । इस दीक्षा द्वारा बताए ध्यान अभ्यास तथा गुरु कृपा से साधक प्रेम तथा समर्पण के साथ भक्ति करते करते कुछ ही समय में ब्रह्मांड की चोटी तक पहुँच जाता है, इसके उपरांत ब्रह्मांड की चोटी से परमपिता परमेश्वर में विलीन होने का रास्ता “परमहंस दीक्षा” के माध्यम से पूरा कराया जाता है । संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज “कान में कर दी कुर्र, तुम चेला हम गुर्र” परंपरा का विरोध करते हैं । इस दीक्षा में साधक को किसी भी प्रकार के मंत्र आदि के जाप करने के लिए नही कहा जाता है यह निरवानी मार्ग है । इस संसार में धार्मिक ग्रन्थों/पाण्डुलिपियों में करोड़ों नाम उपलब्ध हैं जिन्हे जीभ से उच्चारित किया जा सकता है। लेकिन इनमें से किसी भी शब्द में आत्मा को जन्म मृत्यु के सागर से स्थायी तौर पर मुक्त कराने की ताकत नहीं है। जबकि सद्गुरु कबीर जी जिस सार नाम की बात करते हैं वह रहस्यमय है तथा किसी भी धर्मग्रंथ या पाण्डुलिपि में नहीं है। यह सार नाम किसी विरले व्यक्ति को ही प्राप्त हो पाता है। इस संबंध में कबीर साहिब ने भी लिखा है कि –

अर्थात इस दुनिया का कोई भी मंत्र परमपिता परमेश्वर को पाने के लिए सक्षम नही है । संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज अक्सर फरमाते हैं कि मृत्यु के समय तो कंठ कार्य करना बंद कर देता है तो उस समय किसी भी मंत्र का जाप किस प्रकार किया जा सकेगा । ऐसी स्थिति में तो काल निरंजन के गाल में ही जाना पड़ेगा ।

2) समाधि दीक्षा
जैसा कि कबीर साहिब ने कहा है कि "संतो सहज समाधि भली", इसी प्रकार संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज भी साधकों को समाधि अवस्था में पहुँचने के लिए अत्यंत सरल तथा सहज मार्ग बताते हैं । इस अभ्यास को बच्चा, बूढ़ा, जवान, बीमार सभी बड़ी आसानी से कर सकते हैं । हंस दीक्षा के माध्यम से शिव नेत्र सक्रिय हो जाता है लेकिन समाधि ही एक ऐसा दर्पण है जिसमें साधक को अपनी आध्यात्मिक उन्नति का सही सही ज्ञान हो पाता है कि वह अंतरीय मार्ग में किस चरण तक पहुँच चुका है । समाधि में साधक सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर तथा महाकारण शरीर के माध्यम से दिव्य लोकों में गमन करता है तथा विभिन्न लोक लोकांतरों के दर्शन करता हुआ आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होता है । समाधि अभ्यास में किसी प्रकार के कठिन आसन अथवा परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती है, बस होता है केवल समर्पण और प्रेमपूर्वक बह जाना उस परमपिता परमेश्वर की गोद में । समाधि अवस्था में साधक का शरीर निष्क्रिय हो जाता है । समाधि उपरांत साधक का शरीर कुछ ही पलों में वापस सामान्य सक्रिय हो जाता है । समाधि के उपरांत साधक को बेहद ताजगी तथा हलकापन भी अनुभव होता है । समाधि की यह प्रक्रिया ध्यान की पाँच मुद्राओं अर्थात चाचरी, भूचरी, अगोचरी, उन्मुखी और खेचरी से ऊपर की अवस्था है । समाधि क्रिया में किसी भी प्रकार का कोई खतरा नहीं होता है । इस अभ्यास से कुंडलनी जाग्रत हो जाती है तथा शरीर के सभी चक्र जैसे मूलाधार चक्र, इंद्री चक्र, नाभि चक्र, हृदय चक्र, कंठ चक्र, आज्ञा चक्र, सहस्र चक्र सक्रिय हो जाते हैं । साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा सिद्धियों तथा रिद्धियों को प्राप्त कर लेता है लेकिन संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज अपने साधको किसी भी प्रकार की सिद्धियों तथा रिद्धियों के प्रयोग की अनुमति नहीं प्रदान करते हैं क्योंकि इससे आध्यात्मिक उन्नति में रुकावट आ जाती है ।

समाधि में साधक की आत्मा को अंतरीय मंडलों में यात्रा करने के लिए इस भौतिक शरीर की आवश्यकता नहीं होती है । वह सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही यह यात्रा करता है । इसके बारे में तुलसीदास जी ने कहा है –

3) परमहंस दीक्षा ( सार शब्द की दीक्षा )
जब साधक हंस दीक्षा तथा समाधि दीक्षा का अनुसरण करते हुए ध्यान अभ्यास करता रहता है तो वह गुरु कृपा को पा लेता है और गुरु कृपा से वह अंतरीय मंडलों में गमन करने लगता है तो संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज साधक के आग्रह पर उसको परमहंस अर्थात सार शब्द की दीक्षा प्रदान करते हैं । यह एक बहुत ही गूढ विद्या है । कबीर साहिब ने जब धर्मदास को सारशब्द की दीक्षा दी थी तो उनको गंगा के किनारे ले जाकर एक दस फुट का गड्ढा खुदवाया और उसमें प्रवेश कर उसको ऊपर से ढककर दीक्षा देने से पहले बोले कि “धर्मदास तुझे लाख दुहाई, सार शब्द का भेद कहीं बाहर ना जाई” तब धर्मदास ने विनम्रता से कबीर जी से प्रश्न किया कि “फिर हंसा निज घर कैसे जाई” तक कबीर साहिब ने फरमाया कि “कोई अपना हो तो दयै बताई” अर्थात यदि कोई विश्वासपात्र योग्य साधक मिले तो उसको यह ज्ञान बता देना । सार शब्द की प्राप्ति बिना जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो पाना असंभव है । जब सार शब्द प्रकट होता है तो यह साधक की आत्मा को अपने साथ काल की सीमा से परे अमरलोक अर्थात सतलोक को ले जाता है । इसके बारे में कबीर साहिब ने लिखा है कि –

सार शब्द ब्रह्मरंध्र के माध्यम से प्रकट होता है । शरीर के बाहरमुखी नौ द्वारों तथा अंतरीय आज्ञा चक्र के अतिरिक्त यह एक ग्यारवे द्वार के माध्यम से प्रकट होकर सार शब्द आत्मा तो सदा सदा के लिए अमरलोक में ले जाकर परमपिता परमेश्वर में विलीन कर देता है अर्थात काल निरंजन के चंगुल से स्थायी मुक्ति दिलाकर कालातीत कर देता है तथा आत्मा सदा के लिए जन्म मरण से मुक्त हो जाती है । जहां आत्मा अखंड आनन्द का अनुभव प्राप्त करती है । सार नाम के बारे में कबीर जी ने कहा है कि –

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