गुरु की कृपा का मार्ग
ईश्वर तक जाने वाले अनेक सर्वसामान्य मार्ग हैं, इनमें से गुरु की कृपा का मार्ग (गुरुकृपा योग) आध्यात्मिक उन्नति का सर्वोच्च शिखर (मोक्ष) पाने की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण है । जीवन के सभी अंगों में समझने, सिखने और प्रगति करने के लिए; हमें शिक्षक अथवा मार्गदर्शक होना बहुत ही आवश्यक है । यह विश्व मान्य नियम आध्यात्मिक प्रगति के लिए कोई अपवाद नहीं है । केवल देहधारी गुरु के माध्यम से कार्य करने वाले निर्गुण गुरु तत्त्व की कृपा द्वारा (ईश्वर का शिक्षा प्रदान करने वाला तत्त्व) ही शिष्य शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति करता है । साधना मार्ग कौन सा भी हो, यदि हम साधना केवल अपने ही प्रयत्नों से करते होंगे, हम एक विशिष्ट स्तर तक ही पहुंच सकते हैं । इसके आगे के चरण में पहुंचने के लिए गुरु की कृपा अत्यंत आवश्यक होती है । ‘कृपा’ शब्द की व्युत्पत्ति, संस्कृत धातु ‘कृप’ से हुई है, जिसका अर्थ है, दयालु । “कृपा” शब्द दया, स्वीकार (अंगीकार) और आशीर्वाद का द्योतक है । गुरुकृपायोग, एक ऐसा साधना मार्ग है, जहां गुरु की कृपा के माध्यम से देह में बन्धा जीव ईश्वर से एकरुप हो जाता है । आध्यात्मिक प्रगति के लिए लगने वाली अल्प कालावधि, गुरुकृपायोग का सबसे बडा लाभ है । गुरु के अध्यात्म प्रसार के जीवन कार्य में सेवा कर, शिष्य उनकी कृपा प्राप्त कर शीघ्र आध्यात्मिक प्रगति करता है । सांसारिक जीवन के किसी भी सर्वोच्च ध्येय प्राप्ति की तुलना गुरु की कृपा प्राप्त करने के साथ नहीं हो सकती । आगे का उदाहरण इस वाक्य का अर्थ समझने के लिए उपयुक्त होगा । कल्पना करें कि किसी निर्धन विध्यार्थी पर उसके प्रयत्नवश किसी करोडपति का ध्यान पडता है और वह उसे विश्व के सर्वोच्च विश्वविद्याल के लिए छात्रवृत्ति देकर उसके भविष्य के शैक्षिक और व्यावसायिक प्रगति का संपूर्ण दायित्व लेता है । इस उदाहरण में जिस प्रकार प्रगति की सीढियां चरणबद्ध पद्धति से चढने में लगने वाले विद्यार्थी के अनेक वर्ष बच जाते हैं, उसी प्रकार जो साधक गुरु की कृपा प्राप्त करता है, उसके अन्य मार्ग से लगने वाले अनेक वर्ष बच जाते हैं ।
- “गुरुकृपा हि केवलम शिष्य परममंगलम”
- केवल गुरु की कृपा से ही शिष्य का परम मंगल, अर्थात आध्यात्मिक उन्नति होती है ।
प्रभु प्राप्ति और मनोलय तथा बुद्धिलय साध्य करना, गुरु की कृपा बिना सम्भव नहीं है । गुरुकृपा के अतिरिक्त किसी भी साधना मार्ग से साधना करने से मनोदेह, कारणदेह तथा महाकारण देह की शुद्धि पूर्णतः कर पाना सम्भव नहीं है । साथ ही इन सभी मार्गों में मोक्ष (मुक्ति का अंतिम शिखर) प्रदान करने की क्षमता नहीं है । कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग जैसे साधना मार्ग शिष्य के जीवन में केवल गुरुकृपा प्राप्त होने तक ही महत्त्व रखते हैं । गुरुकृपा प्राप्त होने के पश्चात शिष्य केवल गुरु द्वारा बताई साधना ही करता है । इसलिए केवल गुरुकृपा का मार्ग ही शेष रहता है । सभी मार्ग अंत में साधक द्वारा ईश्वर प्राप्ति हेतु गुरुकृपा प्राप्त करने में विलीन हो जाते हैं । गुरुकृपा दो प्रकारसे कार्य करती है :
- संकल्प: जब गुरु संकल्प करते हैं कि, शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति हो, तभी खरे अर्थ से शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति होती है । इसी को गुरुकृपा कहा जाता है । ऐसा हो जाए, ऐसा केवल विचार ही गुरु के मन में आना इसके लिए पर्याप्त है । अन्य किसी की आवश्यकता नहीं रहती । तथापि यह केवल उस सन्त के लिए सम्भव होता है, जिनका आध्यात्मिक स्तर पूर्णहोता है ।
- अस्तित्व: गुरु का केवल अस्तित्व, समीप होना अथवा साथ होना ही शिष्य की साधना के लिए पर्याप्त होता है और प्रगति अपने आप होती है । इसका एक अच्छा उदाहरण है सूर्य, जिसके उदय के साथ सब जग जाते हैं और फूल खिलने लगते हैं । यह मात्र अस्तित्व से साध्य होता है । सूर्य कभी किसी को जगने के लिए अथवा फूलों को खिलने के लिए नहीं कहता ।
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