दीक्षाएं
जब कोई जिज्ञासु हमारे किसी साधक या वैब साइट के माध्यम से इस संस्था के संपर्क में आता है तो साधकों अथवा वैब साइट से उसको परमपिता परमेश्वर की प्राप्ति के मार्ग का एक सामान्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है । इसके बाद यदि वह आश्रम में जाकर संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज से किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक प्रश्न करना चाहता है तो गुरुदेव जिज्ञासु के हर प्रश्न का उत्तर बड़े ही विनम्र भाव से देकर उसको संतुष्ट करते हैं । यदि जिज्ञासु पूर्ण रूप से संतुष्ट हो जाता है और वह दीक्षा का आग्रह करता है तो गुरुदेव दीक्षा से एक दिन पूर्व जिज्ञासु को आंतरिक गूढ रहस्यों से अवगत कराते हैं और अगले दिन दीक्षा प्रदान करते हैं । जो जिज्ञासु विभिन्न मत मतांतरों से से दीक्षा प्राप्त कर ध्यान अभ्यास कर रहे होते हैं संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज उनको हंस दीक्षा ( ब्रह्म दीक्षा ) तथा समाधि दीक्षा दोनों का ज्ञान प्रदान कर देते हैं । और इस ज्ञान के बारे में संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज दीक्षा देते समय यह भी समझते हैं कि कोई पूर्ण गुरु ही इस ज्ञान को प्रदान करने का अधिकारी होता है और वह गुरु भी ऐसा हो कि
बंधे को बंधा मिला, छूटै कौन उपाय ।
कर सेवा निर्बंध की, पल में लेत छुड़ाय ॥
सतगुरु मेरा शूरमा, कसकर मारा बाण ।
नाम अकेला रह गया, पाया पद निर्वाण ॥
दीक्षा के विभिन्न प्रकार
1) हंस दीक्षा ( ब्रह्म दीक्षा )
संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज स्नान आदि से निवृत्त होकर जिज्ञासुओं को सुबह 08:00 बजे से 12:00 बजे के बीच दीक्षा प्रदान करते हैं । हंस दीक्षा में संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज शिष्य को ब्रह्म ज्ञान कराते हैं तथा साधक को एक विशेष प्रकार का प्रभु सिमरण का ज्ञान प्रदान कराते हैं । जिससे साधक सदैव परमपिता परमेश्वर का स्मरण बिना किसी मंत्र के जाप के करता रहता है ।
इसके अतिरिक्त इस दीक्षा में शरीर के विभिन्न चक्रों को जाग्रत कर दिया जाता है । साधक इस दीक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर ध्यान अभ्यास कर अपने आज्ञा चक्र पर विभिन्न लोक लोकांतर देखने लगता है अर्थात तीसरा दिव्य नेत्र खुल जाता है । इस दीक्षा द्वारा बताए ध्यान अभ्यास तथा गुरु कृपा से साधक प्रेम तथा समर्पण के साथ भक्ति करते करते कुछ ही समय में ब्रह्मांड की चोटी तक पहुँच जाता है, इसके उपरांत ब्रह्मांड की चोटी से परमपिता परमेश्वर में विलीन होने का रास्ता “परमहंस दीक्षा” के माध्यम से पूरा कराया जाता है । संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज “कान में कर दी कुर्र, तुम चेला हम गुर्र” परंपरा का विरोध करते हैं । इस दीक्षा में साधक को किसी भी प्रकार के मंत्र आदि के जाप करने के लिए नही कहा जाता है यह निरवानी मार्ग है । इस संसार में धार्मिक ग्रन्थों/पाण्डुलिपियों में करोड़ों नाम उपलब्ध हैं जिन्हे जीभ से उच्चारित किया जा सकता है। लेकिन इनमें से किसी भी शब्द में आत्मा को जन्म मृत्यु के सागर से स्थायी तौर पर मुक्त कराने की ताकत नहीं है। जबकि सद्गुरु कबीर जी जिस सार नाम की बात करते हैं वह रहस्यमय है तथा किसी भी धर्मग्रंथ या पाण्डुलिपि में नहीं है। यह सार नाम किसी विरले व्यक्ति को ही प्राप्त हो पाता है। इस संबंध में कबीर साहिब ने भी लिखा है कि –
कोटि नाम संसार में, तीनते मुक्ति न होए।
मूल नाम ये गुप्त है, जाने विरला कोई॥
पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा सो निश्चय कर जाना ।
आगे पुरुष पुराण नि:अक्षर तिनकी खबर न जाना ॥
नौ नाथ चौरासी सिद्ध लो पाँच शब्द में अटके ।
मुद्रा साध रहे घाट भीतर फिर औंधे मुँह लटके ॥
पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा लोक द्वीप यमजाला ।
कहै कबीर अक्षर के आगे नि:अक्षर उजियाला ॥
अर्थात इस दुनिया का कोई भी मंत्र परमपिता परमेश्वर को पाने के लिए सक्षम नही है । संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज अक्सर फरमाते हैं कि मृत्यु के समय तो कंठ कार्य करना बंद कर देता है तो उस समय किसी भी मंत्र का जाप किस प्रकार किया जा सकेगा । ऐसी स्थिति में तो काल निरंजन के गाल में ही जाना पड़ेगा ।
2) समाधि दीक्षा
जैसा कि कबीर साहिब ने कहा है कि "संतो सहज समाधि भली", इसी प्रकार संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज भी साधकों को समाधि अवस्था में पहुँचने के लिए अत्यंत सरल तथा सहज मार्ग बताते हैं । इस अभ्यास को बच्चा, बूढ़ा, जवान, बीमार सभी बड़ी आसानी से कर सकते हैं । हंस दीक्षा के माध्यम से शिव नेत्र सक्रिय हो जाता है लेकिन समाधि ही एक ऐसा दर्पण है जिसमें साधक को अपनी आध्यात्मिक उन्नति का सही सही ज्ञान हो पाता है कि वह अंतरीय मार्ग में किस चरण तक पहुँच चुका है । समाधि में साधक सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर तथा महाकारण शरीर के माध्यम से दिव्य लोकों में गमन करता है तथा विभिन्न लोक लोकांतरों के दर्शन करता हुआ आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होता है । समाधि अभ्यास में किसी प्रकार के कठिन आसन अथवा परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती है, बस होता है केवल समर्पण और प्रेमपूर्वक बह जाना उस परमपिता परमेश्वर की गोद में । समाधि अवस्था में साधक का शरीर निष्क्रिय हो जाता है । समाधि उपरांत साधक का शरीर कुछ ही पलों में वापस सामान्य सक्रिय हो जाता है । समाधि के उपरांत साधक को बेहद ताजगी तथा हलकापन भी अनुभव होता है । समाधि की यह प्रक्रिया ध्यान की पाँच मुद्राओं अर्थात चाचरी, भूचरी, अगोचरी, उन्मुखी और खेचरी से ऊपर की अवस्था है । समाधि क्रिया में किसी भी प्रकार का कोई खतरा नहीं होता है । इस अभ्यास से कुंडलनी जाग्रत हो जाती है तथा शरीर के सभी चक्र जैसे मूलाधार चक्र, इंद्री चक्र, नाभि चक्र, हृदय चक्र, कंठ चक्र, आज्ञा चक्र, सहस्र चक्र सक्रिय हो जाते हैं । साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा सिद्धियों तथा रिद्धियों को प्राप्त कर लेता है लेकिन संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज अपने साधको किसी भी प्रकार की सिद्धियों तथा रिद्धियों के प्रयोग की अनुमति नहीं प्रदान करते हैं क्योंकि इससे आध्यात्मिक उन्नति में रुकावट आ जाती है ।
स्वत: सहज वह शब्द है, सार शब्द कह सोय ॥
सब शब्दों में शब्द है, सबका कारण सोय ॥
प्रकृति पार वह शब्द है, आगम अचिंत अपार ॥
अनुभव सहज समाधि में, आज गुरु चरण अधार ॥
समाधि में साधक की आत्मा को अंतरीय मंडलों में यात्रा करने के लिए इस भौतिक शरीर की आवश्यकता नहीं होती है । वह सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही यह यात्रा करता है । इसके बारे में तुलसीदास जी ने कहा है –
पग बिन चले सुने बिन काना ।
कर बिन कर्म करे विधि नाना ॥
रसना बिन सकल रस भोगी ।
वाणी बिन वक्ता बाद योगी ॥
तन बिन पारस नयन बिन दरशे ।
पाये ध्यान वो शेख विशेखे ॥
यह विधि सबहि अलौकिक करणी ।
महिमा जाय कौन विध वरणी ॥
3) परमहंस दीक्षा ( सार शब्द की दीक्षा )
जब साधक हंस दीक्षा तथा समाधि दीक्षा का अनुसरण करते हुए ध्यान अभ्यास करता रहता है तो वह गुरु कृपा को पा लेता है और गुरु कृपा से वह अंतरीय मंडलों में गमन करने लगता है तो संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज साधक के आग्रह पर उसको परमहंस अर्थात सार शब्द की दीक्षा प्रदान करते हैं । यह एक बहुत ही गूढ विद्या है । कबीर साहिब ने जब धर्मदास को सारशब्द की दीक्षा दी थी तो उनको गंगा के किनारे ले जाकर एक दस फुट का गड्ढा खुदवाया और उसमें प्रवेश कर उसको ऊपर से ढककर दीक्षा देने से पहले बोले कि “धर्मदास तुझे लाख दुहाई, सार शब्द का भेद कहीं बाहर ना जाई” तब धर्मदास ने विनम्रता से कबीर जी से प्रश्न किया कि “फिर हंसा निज घर कैसे जाई” तक कबीर साहिब ने फरमाया कि “कोई अपना हो तो दयै बताई” अर्थात यदि कोई विश्वासपात्र योग्य साधक मिले तो उसको यह ज्ञान बता देना । सार शब्द की प्राप्ति बिना जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो पाना असंभव है । जब सार शब्द प्रकट होता है तो यह साधक की आत्मा को अपने साथ काल की सीमा से परे अमरलोक अर्थात सतलोक को ले जाता है । इसके बारे में कबीर साहिब ने लिखा है कि –
सार शब्द जब आवे हाथा, तब तो काल नवावे माथा ॥
जाप मारे आजपा मारे अनहद भी मर जाये ।
सूरत समानी शब्द में ता को काल ना खाई ॥
सार शब्द ब्रह्मरंध्र के माध्यम से प्रकट होता है । शरीर के बाहरमुखी नौ द्वारों तथा अंतरीय आज्ञा चक्र के अतिरिक्त यह एक ग्यारवे द्वार के माध्यम से प्रकट होकर सार शब्द आत्मा तो सदा सदा के लिए अमरलोक में ले जाकर परमपिता परमेश्वर में विलीन कर देता है अर्थात काल निरंजन के चंगुल से स्थायी मुक्ति दिलाकर कालातीत कर देता है तथा आत्मा सदा के लिए जन्म मरण से मुक्त हो जाती है । जहां आत्मा अखंड आनन्द का अनुभव प्राप्त करती है । सार नाम के बारे में कबीर जी ने कहा है कि –
जो जन होय जौहरी, सो धन ले बिलगाय ।
सोहंग सोहंग जप मुआ, वृथा जन्म गवाया ।
सार शब्द मुक्ति का दाता, जाका भेद नहीं पाया ।
सोहंग सोहंग जपे बड़े ज्ञानी, नि:अक्षर की खबर न जानी ।
धर्मदास मैं तोहि सुझावा, सार शब्द का भेद बतावा ।।
सार शब्द का पावै भेदा, कहै कबीर सो हंस अछेदा ॥
सार शब्द नि:अक्षर आही, गहै नाम तेही संशय नाहीं ॥
सार षड जो प्राणी पावै, सत्यलोक महिं जाए समावै ॥
काया नाम सबहि गुण गावै, विदेह नाम कोई बिरला पावै ।।
विदेह नाम पावेगा सोई, जिसका सद्गुरु साँचा होई ॥
शब्द शब्द सब कोई कहे, वह तो शब्द विदेह ।
जिव्हा पर आवे नहीं, निरख परख के लेह ॥
बावन अक्षर में संसारा, नि:अक्षर वो लोक पसारा ।
सार नाम सद्गुरु से पवे, नाम डोर गहि लोक सिधावे ।।
सार नाम विदेह स्वरूपा, नि:अक्षर वह रूप अनुपा ।।
तत्व प्रकृति भाव सब देहा, सार शब्द नि: तत्व विदेहा ॥
सबके ऊपर नाम नि: अक्षर, तहै लै मन को राखै ।
तब मन की गति जानि परै, ये सत्य कबीर भाखै ॥
जब लग ध्यान विदेह न आवे, तब लग जीव भाव भटका खावे ।।
ध्यान विदेह औ नाम विदेहा, दोई लाख पावै मिटै संदेहा ॥
छिन एक ध्यान विदेह समाई, ताकि महिमा वरणी न जाई ॥
काया नाम सबै गोहरावे, नाम विदेह कोई बिरला पावे ॥
जो युग चार रहे कोई कासी, सार शब्द बिन यमपुर वासी ॥
अड़सठ तीरथ भूपरिक्रमा, सार शब्द बिन मिटे न भरमा ॥
केवल नाम नि:अक्षर आई, नि:अक्षर में रहै समाई ॥
नि:अक्षर ते करै निवेरा, कहे कबीर सोई जन मेरा ॥
अमर मूल मैं बाराँ सुनाई, जिहिते हंसा लोक सिधाई ॥
शब्द भेद जाने जो कोई, सार शब्द में रहे समाई ।।
चौथे लोक का तब सुख पावै, जब सद्गुरु सार नाम बतावै ।
मन बच कर्म जो नामहि लागै, जनम मरण छूटै भ्रम भागै ॥
मंत्र यंत्र भ्रम जाल है, अक्ल उक्त से थाप ।
नाम नि:अक्षर शब्द है, सुरति निरति से जाप ॥
शब्दे शब्दे सब कहै, शब्द लखे नहि कोई ।
सार शब्द जेहि लखि परै, छत्र धनी है सोय ॥
क्षर अक्षर निरवार के, नि:अक्षर गह सार ।
नि:अक्षर जब पावई, तब ही भाव के पार ॥
अक्षर भेद न जानही, क्षर में सब नर बंद ।
नि:अक्षर जब पावही, तबै मिटे जीव फंद ॥
सिद्ध साधु सब पंचमुए, क्षर के परे झमेल ।
नि:अक्षर जाने बिना, भए काल के चेल ॥
क्षर अक्षर नि:अक्षर बुझे सूझ गुरु परचवे ।
क्षर परहर अक्षर लौलावे, तब नि:अक्षर पावे ॥
बावन अक्षर ध्यावही, ते भव होए न पार ।
नि:अक्षर है का जप करावे, सोई गुरु है सार ॥
सप्त कोटि मंत्र हैं, चित भरमावन काज ।
नि:अक्षर सार मंत्र है, सकाल मंत्र को राज ॥
महा चेतन नि:अक्षर, खंड ब्रहमाण्ड के पार ।
धर्मदास तुम सुमिर के, उतरो भाव जल पार ॥
सत्यनाम की की शोभा, कहानो करो बखान ।
नि:अक्षर जो जानि है, सोई संत सुजान ॥
पिंड ब्रहमाण्ड के पार है, सत्यपुरुष निजधाम ।
सार शब्द जो कोई गहै, लहै तहां विश्राम ॥
कहन सुनन देखन, सब अक्षर में जान ।
गुप्त नि:अक्षर देखो, अंतर दृष्टि समान ॥
संत कोटि बैठे जहां। ज्ञानी लक्ष अनेक ।
सार शब्द में जो रती, सो अनंत में एक ॥
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