भक्ति के प्रकार
सभी लोग अपने-अपने तरीके से प्रभु की भक्ति कर रहे हैं लेकिन कोई बिरला ही संत सद्गुरु से निर्वाणी भक्ति के ज्ञान के रहस्य को जान मुक्ति प्राप्त करता है। भक्ति को निम्नलिखित प्रकारों से जाना जा सकता है ।
- सर्गुण भक्ति
- निर्गुण भक्ति
- परा भक्ति
- निर्वाणी भक्ति
सामान्य जन साधारण केवल सर्गुण व निर्गुण भक्ति पद्धतियों को ही जानता है जिनसे पूर्ण मुक्ति नही पाई जा सकती है ।
सर्गुण भक्ति
सर्गुण भक्ति का जैसे – गुरूद्वारा, मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि में पूजा के लिए जाना, देवी-देवताओं की पूजा कराना, मूर्ति पूजा, ग्रहों की पूजा, यज्ञ आदि करना । इनमे विभिन्न मंत्रों का सहारा भी लिया जाता है । इसमे साधक प्रभु के विभिन्न रूपों की पूजा करता है । यह वाह्यमुखी भक्ति है । इस प्रकार की भक्ति करने वाले साधक को मृत्यु उपरांत आत्मा के पुण्य कर्मों के आधार पर उसको पित्र लोक या स्वर्ग लोक आदि में निवास मिलता है लेकिन पुण्य कर्मों के फल की समाप्ति पर आत्मा को पुन: इस नाशवान संसार में भेज दिया जाता है ।
निर्गुण भक्ति
निर्गुण भक्ति आंतरिक संगीतमय आवाजों तथा ज्योति की भक्ति है । निर्गुण भक्ति करने वाले लोग मानते हैं कि प्रभु का कोई रंग, रूप नही है और वह निराकार है और मानव रूपी मंदिर के अंदर ही पाया जा सकता है । इसमे साधक मुख्यत: आत्म साक्षात्कार पर केन्द्रित रहते हैं ।यह भक्ति पाँच मुद्राओं चाचरी, भूचरी, अगोचरी, उन्मुखी और खेचरी पर आधारित है । उक्त सभी ध्यान की मुद्राओं से ब्रहमाण्ड में प्रवेश व यात्रा करने का माध्यम सुषमना नाड़ी है । निर्गुण भक्ति की पहुँच सहस्रसार चक्र तक है । इसमे ध्यान की मदद से साधक ब्रहमाण्ड को अपने शरीर के अंदर देखने लगता है और अपने अंतर में असीम परमानंद अनुभव होने लगता है ।
परा भक्ति
परा भक्ति की पहुँच सर्गुण, निर्गुण दोनों भक्तियों, वेदों तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों से परे है । लेकिन इसमे भी साधक भक्ति के लिए विभिन्न मंत्रों का उपयोग करता है । इस भक्ति से ब्रह्मांड की चौथी तक साधक गमन करता है तथा असीम आनंद का अनुभव करता है लेकिन जिस प्रकार बूंद समुद्र में मिलकर समुद्र हो जाती है इसी प्रकार आत्मा परमपिता परमेश्वर में मिलकर स्वयं परमपिता परमेश्वर नहीं होती है ।
निर्वाणी भक्ति
यह भक्ति का वह प्रकार है जिसके माध्यम से कोई साधक अपनी आत्मा का पूर्ण कल्याण कर लेता है । इस विधि में जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि किसी मंत्र आदि का जाप नही करना होता है । परा भक्ति के पार जाकर “सार शब्द” जो मुक्ति प्रदान करने वाला आत्मिक शब्द है । जिसको लिखा, पढ़ा या बोला नहीं जा सकता है यही मुक्ति कारक है । यही सार शब्द साधक की आत्मा को कालातीत कर स्थायी मुक्ति प्रदान करने की आध्यात्मिक शक्ति रखता है। सद्गुरु की कृपा से जब सार शब्द प्रकट होता है तो यह मन माया की सीमा से खीच कर पार ले जाता है । इसी सार शब्द के बारे में कबीर साहिब ने बहुत ही विस्तार से चर्चा की है ।
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